मंगलवार, 9 मई 2017

"दुनिया में कितना गम है, मेरा गम कितना कम है ..."

दो महीने पहले स्लिप डिस्क की चपेट में आ गया। फिर क्या था ... न उठ पा रहा था, न बैठ पा रहा था। लग रहा था कमर पे छिली हुई नुकीली हड्डी लगातार चुभ रही हो। आना-जाना तो दूर चार कदम भी चार कोस से कम नही था मेरे लिए । इन्ही दिनों विमहांस जाना हुआ। डॉक्टर को दिखाकर हॉस्पीटल के लॉन में खून और एक्स-रे की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा था। वहां तमाम तरह के मरीज अपनी किस्म-किस्म की बीमारियों और समस्याओं के साथ मौजूद थे। कुछ ठंड के आखिरी दिनों में ताजा-ताजा धूप खाने में लगे थे तो कुछ एक्सरसाइज जैसा कुछ कर रहे थे। पेनकिलर खाने के बावजूद दर्द की तरंगें रह-रहकर मुझे डांवाडोल भी कर जाती थी। लेकिन इसी बीच मेरी नजर करीब तेईस-चौबीस साल के लड़के पर चली गयी। उसका पूरा का पूरा एक टांग गायब था। शक्ल-सूरत और पहनावे से वो अफगानिस्तान या फिर किसी और देश का ही मालूम हो रहा था। शायद किसी विस्फोट की जद में आ गया था या फिर किसी दुर्घटना का शिकार हो गया हो। उसके दो-तीन रिश्तेदार या परिचित कुछ-कुछ देर में उसे कृत्रिम पैर के जरिए चलने में मदद करते। मेरा ध्यान रह-रहकर उसके चेहरे पर चला जाता। मेरा खुद का दर्द कुछ समय के लिए मानो गायब सा हो गया और यह सोच-सोच कर ही मैं सिहर जाता कि उसके दिमाग में क्या-क्या चल रहा होगा, उस पर क्या बीत रही होगी । कई लोगों को उसके परिचितों से बात करते भी देखा, लोग-बाग उससे अपनी सहानुभूति भी प्रकट कर रहे थे खासकर महिलाएं। मेरी किसी से कुछ पूछने की हिम्मत नही हुई। सालों पहले किसी किताब के शुरु के पन्ने पर 'गांधी जी का जंतर' शीर्षक वाली एक छोटी सी टिप्पणी पढ़ी थी, अचानक से उसकी याद आ गयी।... वैसे स्लिप डिस्क का अच्छा-खासा असर अब भी है, लेकिन वो अभी उतार पर है। शायद दो-तीन हफ्तों में चलने-फिरने लायक हो सकूं।

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