सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

एक स्वर्णिम इतिहास की कब्र पर उगा जंगल है पटना ...

पटना की बीमारी के पीछे का पैथोजेन यानि रोगाणु हर नए टीके को भकोस लेता है , म्यूटेट हो जाता है  । टीका बेचारा चकमा खा जाता है, बीमारी है कि मौजूद रहती है , खिलखिलाती है ,बस उसका हुलिया बदल जाता है । दरअसल सामाजिक न्याय की कई तगड़ी खुराकों को पस्त कर देने का नाम है पटना।

साल 2005 , करीब पंद्रह साल के बाद पटना का हुक्मरान बदल दिया गया। वजह साफ थी , सालों पहले जिस चेहरे ने राज्य बदल देने की बात की थी , वो खुद ही बदल गया। बाकी देश जहां अर्थव्यवस्था के हवाई सफर पर था , बिहार बदहाली की नई कहानी रच रहा था। ब्राह्मणवाद का विरोध कर लालू पटना की गद्दी पर बैठे और बिहार को विकास का भरोसा दिलाया था। लालू की दूसरी पारी की पहली तस्वीर कई ब्राह्मणों से कई किलो फूलों का माला गले में गटक जाने की थी। सामाजिक न्याय के मसीहा की इस बदली तस्वीर ने मगध की चिरपरिचित शांति पर सामाजिक न्याय मार्का मुहर लगा दी। कोट और हैट पहने लालू बिहार की तरक्की के लिए विदेश फिरते तो दिखे, लेकिन जमीं पर तरक्की का कोई निशान भी न छोड़ पाएं। ... लेकिन मगध अपने चेहरे पर चिरपरिचित शांति लपेसे अपनी जगह पर जमा रहा। सामाजिक न्याय की नयी फसल इक्का दुक्का जाति ने अपनी मनमर्जी से काटकर अपने दरवाजे पर रख ली।

साल 2005 को पैदा हुई उम्मीद भी अब मूर्च्छित हो चली है। बीते कुछ सालों से अफवाह गर्म थी कि राज्य रास्ते पर चल पड़ा है । देश भर की अखबारें पटना में सूर्योदय की खबरों से पटी पड़ी थी। लेकिन अभी दशक भी नही गुजरा था कि लगने लगा कि मगध की चिरपरिचित शांति की लपटों ने पाटलिपुत्र का दामन नही छोड़ा है। अभी कुछ दिनों पहले की ही बात है , लक्ष्मणपुर-बाथे कांड के आरोपी पटना की ऊंची अदालत द्वारा बरी कर दिये गये। एक साल के नवजात से लेकर बुढ़े-बुर्जुगों तक की हत्या के मामले में प्रशासन अदालत की नजर में सही सबूत नही पाया। लक्ष्मणपुर बाथे का यह मामला और आरोपियों का बरी होना कोई अकेला मामला नही है। मियांपुर, बथानी टोला , नगरी जनसंहार में आरोपियों के बरी होने के मामले के साथ इसे देखा जाना जरुरी है। आखिर ऐसा क्यों हैं कि राज्य समाज के कमजोर तबके को न्याय दिलाने में नाकाम होती दिख रही है।

दरअसल मगध की शांति के नव महारथियों के तिकड़म उस वक्त नुमाया हो गए जब हजारों की भीड़ आतंक मचाती पटना पहुंची और पटना की छाती पर चढ़कर सत्ता को खुलेआम मुंह चिढ़ाया । पटना का प्रतिरोध नदारद था। पटना दब्बू साबित हुई, हुक्मरान नजर चुराते रहे। सत्ता के सीने पर उत्पात मचाती यह भीड यह वो भीड नही थी जेपी के बुलावे पर गांधी मैदान आ जमी थी। ना इस भीड़ का सचिवालय के सामने की उन आदमकद मूर्तियों से कोई साम्य था जो सन बयालीस के आंदोलन में आजादी के लिए होम हो गयी । इस घटना ने 2006 में पैदा हुई उम्मीदों के आगामी पराभव का संकेत दे दिया था। इस भीड़ की मौजूदगी पटना के बीमार होने का बयान था।  उस बीमार पटना का जिसके पैरो तले की जमीन उन सभ्यताओं और महामानवों की कब्रों से पटी पड़ी है जिन्होंने हजारों साल पहले दुनिया भर के लोगों को अचंभित कर दिया था। यह भीड़ उन मुखिया जी की मौत पर तांडव मचा रही थी जिन्होंने गर्भ में पल रहे बच्चों के कत्ल को यह कहकर जायज ठहराया कि इससे नक्सलियों की नई खेप पैदा होगी। यह महज दुर्संयोग नही है कि इन मुखिया जी के हत्यारे भी पाटलिपुत्र की जेल की बजाय हवा में है। दरअसल मगध की शांति सही और गलत के बीच चयन का जोखिम नही पाल सकती। वह तो क्षुद्र स्वार्थों से संचालित होती है।

आवासीय और प्रवासीय दोनों ही टाइप के बिहारी अक्सर बातचीत में बुद्ध, महावीर से लेकर चंद्रगुप्त , अशोक के बिहार की धरती से संबंद्ध होने का हवाला देते है। शिक्षा की चर्चा होती है तो नालंदा, विक्रमशीला पर गर्वान्वित होते हैं। दरअसल वर्तमान की बदतरी का दलदल उन्हें इतिहास का आश्रय लेने को मजबूर करता है। खुद को दिलासा देने और सामने वाले के सवाल से उबरने को वे इस डिफेंसिव मैकेनिज्म का इस्तेमाल करते हैं।

और वैसे भी उस पटना से क्या उम्मीद की जाय, जिसकी पहचान गोलघर है। सेना के लिए बना गोदाम , जिसके जन्मदोष ने उसे कहीं का न छोड़ा, दरवाजे बाहर की बजाय अंदर से खुलने वाले। कूपमंडूक पटना का सौ फीसदी सटीक प्रतीक है गोलघर।

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