रविवार, 9 जून 2013

माथाटेक आज्ञापालन से बेहतर संघर्ष/सर-फुटौव्वल

स्टीवन ल्यूक्स की किताब `पावर : अ रेडिकल व्यू` की चर्चा करते हुए लेक्चरार ने हम सबसे एक सवाल पूछा – आपलोंगों ने प्रेमचंद का लिखा `ठाकुर का कुआं` पढ़ा है न ? पूरे क्लास से एक भी आवाज नही फूटी। अधिकांश ने नाम भी नही सुन रखा था। खैर चंद पंक्तियों में उन्होंने इस कहानी के निहितार्थ बताए। दलित स्त्री प्यास से तड़पते पति के लिए ठाकुर के कुएं से पानी लाने को रात के अंधेरे में बमुश्किल हिम्मत जुटाती है। लेकिन कुंए की मुंडेर पर डर की बजाय पाप-पुण्य का विचार हावी हो जाता है । मन के किसी कोने से पवित्रता की सत्ता भक्क से उछलकर और पूरी ताकत से तड़पते पति के चेहरे पर हावी हो गयी। उसे लगता है वो कहीं पाप तो नही कर रही ... और फिर वह दबे पांव वापस लौट आती है।

पावर शब्द के हिंदी समानार्थी शब्द एक की बजाय दो बताए उन्होंनें। दोनों एक दूसरे से अलग- शक्ति और सत्ता। पावर-शक्ति/सत्ता के तीन आयामों की चर्चा हुई। पावर के प्रथम आयाम बाहुबल और धमक के जोर पर निर्णय, पावर के द्वितिय आयाम में एजेंडा सेंटिंग के बरक्स निर्णय के बाद पावर के तीसरे आयाम के खतरनाक बिंदुओं पर चर्चा टिक गयी। तीसरे आयाम में पावर यानि सत्ता इस मायने में भी शक्ति से ज्यादा खतरनाक है क्योंकि बाकी के उलट इसे डिटेक्ट करना आसान नही। दरअसल शक्ति के साथ पवित्रता जुड़कर सत्ता की शक्ल इख्तियार कर लेती है। अव्वल तो यहां मामला है कि रोगी ही खुद को रोगी मानने से इंकार कर दे। शक्ति में सवाल की उपस्थिति है, वाद-प्रतिवाद की गुंजाइश ... लेकिन सत्ता का सॉफिस्टिकेटेड मैकेनिज्म सवाल को पाप के तौर पर लेता है।

कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र सवालों की बुनियाद पर ही खड़ा हो सकता है। विचारों की टकराहट और संघर्ष लोकतंत्र को कमजोर नही करते। तार्किकता,सम्मान और न्याय की बुनियाद पर ही परिवार, संगठन , समाज , देश बेहतर भविष्य को पा सकता है।बेहतर भविष्य के लिए किसी व्यक्ति, परिवार या संगठन तक सीमित नही हुआ जा सकता । किसी देहरी पर अनंत काल तक के लिए ठिठकना न केवल समस्या को गंभीर बनाएगा बल्कि बेहतर भविष्य के लिए रुकावटे पैदा करेगा।

ऐसे में जबकि खबरों में गोवा का झोलझाल , नेताओं के बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष को कठघरे में रखा जा रहा है तो यह सवाल अहम है इस संघर्ष,कंपीटीशन या सरफुटौव्वल (जो भी नाम दिया जाय, कहा जाय ) में गलत क्या है और कितना है? बाकियों से कितना बेहतर या बदतर है ? किसी व्यक्ति के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी को लेकर लेकर सवाल उठ सकते है, जायज/जरुरी भी है कि वो देश की एकता, अकंडता और धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने में कितना सक्षम है ?... लेकिन प्रक्रियागत बात की जाय तो मेरे हिसाब से छद्म आम सहमति और माथाटेक परंपरा से कहीं बेहतर यह सरफुटौव्वल/संघर्ष है।

अंत में… गुण-अवगुण किसमें और कहां नही होते ? सवाल बेहतर और बदतर का है। सवाल और संघर्ष लोकतंत्र की जीवंतता के लिए जरुरी हैं।

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