गुरुवार, 3 जून 2021

"चांदी की साइकिल, सोने की सीट"

बचपन के दिन थे। दूरदर्शन पर महाभारत के प्रसारण का काल था वह। हरीश भीमानी की आवाज के साथ पहिया घूमता रहता था काल का, लगता था कि काल की आवाज इसी पहिए की गति के साथ भ्रमण पर निकली हो, वायु विहार कर रही हो। लगभग यही काल था जब कांग्रेस के हाथ पर काल ने अपना पंजा चला दिया था। जनता दल के दिन थे बिहार में तब और उनके नेता चक्र निशान पर मुहर मारने की अपील करते थे। ... आकार-प्रकार के हिसाब से यह चक्र मुझे महाभारत के अद्भुद चरित्र भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र की जगह साइकिल के चक्के (पहिए) जैसा जान पड़ता था।

साइकिल के आकर्षण से बाकियों की तरह मैं भी बंधा था। देश, काल, परिस्थिति के लिहाज से साइकिल जरुरत भी थी और शौक भी। वैसे भी साइकिल की आकर्षण-तरंगों से कौन बच सकता था भला। साइकिल के फर्राटपने और पैदल यात्री की मंथर गति का क्या मुकाबला । स्कूल जाना हो , ट्यूशन के लिए देर हो रही हो तो साइकिल लीजिए और फटाफट पहुंच जाइए। आटा पिसाना हो, राशन की दुकान जानी हो ... या फिर मन न लग रहा हो , टंडेली करनी हो तो साइकिल लीजिए और हवाखोरी के लिए निकल जाइए। साइकिल हजार मर्जों की दवा थी। जिस तरह प्रेमचंद के हामिद ने चिमटा खरीदने से पहले सैंकड़ों तर्क चिमटे के पक्ष में जुटाए थे, कह सकते हैं कि साइकिल के पक्ष में तर्कों का अंबार स्वाभाविक रुप से खड़ा हो जाता है।

साइकिल का आकर्षण दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। खैर साइकिल चलानी आती नहीं थी । अपनी लंबाई कम होने की वजह से आशंका के बादल भी सर में उमड़-घुमड़ रहे थे। साइकिल उधार लेकर कैंची तरीके से साइकिल चलाने की थोड़ी-बहुत कोशिश भी कि लेकिन बात बनी नही । ऐसे में बुजुर्गों वाली मुड़ी हैंडल औऱ थोड़ी ऊंची साइकिल के उस जमाने में जब सीधी हैंडल और अपेक्षाकृत कम ऊंची हीरो रेंजर साइकिल का हमारे इलाके में आगमन हुआ तो फिर हसरतें औऱ परवान चढ़ने लगी। साइकिल के लिए अब चिकिर-चिकिर शुरु हो गयी। साइकिल के लिए चिकिर-चिकिर का समापन खरीद पर अनुमोदन के बाद ही समाप्त हुआ। .... और फिर वह शुभ घड़ी आ ही गयी जब 33 नंबर गुमती के पास की साइकिल दुकान पर हम भी हीरो रेंजर की अपनी डिमांड लेकर पंहुच गए।

साइकिल कसा जा रहा था। हमलोग अपनी पैनी दृष्टि से साइकिल की दुकान पर नजर फेरे जा रहे थे। क्या-क्या और लगवाया जा सकता है अपनी इस बहुप्रतीक्षित साइकिल में । घंटी, सीट पर गद्दी, हैंडल के दोनों किनारों के हिस्सों पर प्लास्टिक की एक्सट्रा कवर, पीछे के पहिए पर कैरियर, दोनों पहियों में स्पॉकों पर प्लास्टिक का गुटका, पहिए के ऊपर ब्रश जिससे कि पहिए की साइड वाले हिस्से पर धूल न जमें ... । साइकिल के सोलह श्रृंगार में हम कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे थे।  बस एक कसक रह गयी ... डायनेमो और आगे की लाइट । पास के गांव से हमारे मास्टर साहब आते थे। उनकी साइकिल में डायनेमो और लाइट लगी थी, जो रात के अंधेरे में साइकिल को आगे का रास्ता बखूबी दिखाती।  बाद में विज्ञान की कक्षा में पता चला कि डायनेमो पहले पहिए की गतिज उर्जा को यांत्रिक उर्जा में, फिर यांत्रिक उर्जा को विद्युत उर्जा में बदलती है औऱ तब जाकर साइकिल के हैंडल के पास लगा विद्युत बल्ब प्रकाशित होता है। डायनेमो के इसी जादू का मुरीद था मैं।


 

अंग-प्रत्यगों को कसकर सायकिल तैयार की जा रही थी।... और जब पंप से पहियों के ट्यूब में वायु प्रवाहित की गयी तो लगा सपने ने अब सच का आकार ले लिया है। फिर आने वाले दिन कुछ साइकिल-केंद्रित रहे। पहले कैरियर पर सवारी की गयी और फिर कई दिनों के प्रशिक्षण के बाद मुख्य सीट पर सवारी की तो लगा असली स्वर्ण सिंहासन यही है। हसरत जयपुरी के शब्दों को उधार लें तो कह सकते हैं कि `चांदी की साइकिल, सोने की सीट` से कोई कम नही थी हमारी साइकिल।

 

 

 

 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

समयचक्र में पिसती-बिछड़ती सतुआनी

 

अभी कल ही व्हाट्सऐप वार्तालाप बक्से में आइसलैंड में खदकते ज्वालामुखी की तस्वीरें मिली थी। जाग्रत ज्वालामुखी से लावा भभक-भभककर आस-पास पसर रहा था। आज सतुआनी के दिन बचपन के उन दिनों की याद सहसा आ गयी जब सत्तू की शांत ज्वालामुखियों के क्रेटर में हम ऊपर से पानी उड़ेलते रहते , अपने इस अनुमान तक कि इतना पानी पर्याप्त है सत्तूई पहाड़ को सत्तू के गोलों-गुठलियों में परिणत करने के लिए। ज्वालामुखी के क्रेटर में पानी प्रवाहित कर और चीनी मिश्रित कर सत्तू को खूब घोला-साना जाता। ... और फिर छोटी-छोटी गुठलियों में तब्दील कर उदरस्थ किया जाता। सतुआनी का अर्थ हम बच्चों के लिए सत्तू की यही छोटी-छोटी गुठलियां थी।... इस पर्व में और कोई रस्म हम बच्चों के जिम्मे नहीं थी।



ग्लोबलाइजेशन और कालचक्र के चपेट में होली, दीवाली, दूर्गापूजा जैसे भारी-भरकम त्यौहार आने से तो बच गए , लेकिन सतुआनी, जूड़-शीतल, अनंत चतुर्दशी जैसे त्यौहार की अब गिनती की ही सांसे बची जान पड़ती है।

वैसे सत्तू के रुप-गुण विविध, बहुआयामी हैं। नमक के साथ भी स्वादिष्ट और चीनी के साथ भी कमतर नहीं। लू चल रही हो, सर भट्ठी बना जा रहा हो, माथा फटा जा रहा हो। ग्लास में पानी उड़ेलिए , सत्तू भरे कुछ चम्मच डालिए, नमक मिलाइए, फिर चम्मच से दे खटाखट और फिर ऊपर से नींबू की कुछ बूंदे छिड़क दीजिए ।सत्तू तरल रुप में गले में गटगटागट किए जाने के लिए प्रस्तुत हो जाता है। एकबारगी ही आराम महोदय कहीं भी विचरित हो रहे हों , आपके दिलोदिमाग को नाभिक स्वीकार कर उसकी ओर अभिकेंद्रीय बल की जकड़ में तीव्र गति से संचरण के लिए मजबूर हो उठेंगें।

गर्मी की आहट के साथ ही सत्तू अपनी गरिमामयी उपस्थिति के साथ वातावरण में विराजमान हो जाता। शुद्धता के आग्रही नर-नारी अपने चाक-चौबंद निरीक्षण में चना पीसवा कर किचन की तिजौरी में पर्याप्त मात्रा में सत्तू का प्रबंध कर लेते। दलसिंहसराय में सत्तू वैसे तो बाकी दुकानों में भी उपलब्ध होती लेकिन लोगों की पहली पसंद होती – पूजा सत्तू। हालांकि पूजा सत्तू को टक्कर देने की कोशिशें कम नही हुई, लेकिन दलसिंहसराय में मेरे सक्रिय दिनों तक किसी को वो प्रतिष्ठा, वो बुलंदी हासिल नहीं हुई।

सच कहूं तो सत्तू का सेवन अब गाहे-बेगाहे ही करता हूं लेकिन एक जमाना था जब घर से नानीघर जाने-आने या फिर किसी और सिलसिले में बस-अड्डे जाना-आना होता तो ऐसी कोई आशंका ही नही थी कि वहीं किसी कोने-स्टॉल में विराजमान स्टील टोपियों में सत्तू की पर्वत-श्रृंखलाओं की ओर ध्यान खुद-ब-खुद न खींचा चला जाए। टोपिए में सत्तू के पीत पहाड़ों की तराई में छिले हुए प्याज कतारबद्ध होकर बारी-बारी से अपने कतरे जाने का इंतजार कर रहे होते और हरी मिर्चियां देवदार के वृक्षों की तर्ज पर जगह-जगह पहाड़ में खुंसी हुई होती। ऐसे में कुछ गर्मी से मुकाबले के लिए और कुछ जीभ की मजबूरी ... अक्सरहां ही कम से कम एक ग्लास सत्तू का पान करने से नही चूकता।

रविवार, 13 सितंबर 2020

हिंदी दिवस की पूर्वसंध्या पर ...


एक असमंजस की स्थिति अक्सर बन जाती है जब कोई पूछता है - कौन सी भाषा है तुम्हारी ? जब खुद भी इस पर सोचता हू तब भी। बिहार का हूं यह जानकर संगी-साथी अक्सर भोजपुरिया जोक फॉरवर्ड करते रहे है। जब बताता हूं कि दरभंगा कमिश्नरी है मेरी तो मैथिली वाला समझते हैं और मधुबनी पेंटिग की परिधि में ही परिभ्रमण करने लगते है। ... लेकिन जब यह बताता हूं कि मैथिली की किताबें अक्सर अपने पल्ले नहीं पड़ती है तो उनके साथ-साथ खुद भी इस मुद्दे पर सुस्ताने लगता हूं।

ऐसा नहीं है कि इस सवाल से अभी ही पाला पड़ा हो। पहले भी इस सवाल से जूझता आया हूं । वैसे अपना तो यही जवाब होता था है कि - ठेठी । हालांकि ठेठी कौन सी भाषा या बोली है यह मैं नहीं जानता। बस बचपन में कहीं सुना होउंगा उसे ही दुहराता रहता हूं। ठेठी का आकार-प्रकार, प्रवृति, चौहद्दी और इसकी बनावट-बुनावट क्या है, ये तो खैर भाषा-विज्ञानी जानें । यह कहीं सुना कि यह मैथिली और अंगिका का संकर रुप है और यही परिभाषा मैं भी बाकियों के सामने उगलता रहता हूं।

अपना तो बचपन कहां जा रहली हन ? की खा रहली हन ? की कर रहली हन ? ठीक ही न ? खेले जा रहलिये हन ... कुछ नय कर रहलिय हन ...  जाय दे न ... में बीता। हालांकि यह भी किसी तिलिस्म से कम नहीं अपने घर में मम्मी से स्थानीय बोली में वहीं पापा से हिंदी में बातचीत होती । पटना तक तो खैर ज्यादा कुछ नहीं बदला ... लेकिन बनारस और फिर राजनगरी दिल्ली में राजकीय भाषा हिंदी इस ठेठी पर ठसक के साथ बैठ गयी। हालांकि अपनी हिंदी पर क्षेत्रीय असर अब भी हावी था/है । श और स के बीच के उच्चारणीय अंतर को आत्मसात करने और अपनी जिह्वा पर बिना किसी दुर्घटना के लैंडिग करवाने को लेकर संघर्ष अब भी जारी है। `बड़ा` शब्द को देखते ही दूर से खिसक लेने की कोशिश करता हूं। ऐसे दसियों संघर्षों के साथ हिंदी में शरणागत हूं।

ऐसा नहीं है कि हिंदी में मेरी असमंजसता केवल बोलने को लेकर ही है । हालांकि लिखता नाममात्र का हूं लेकिन जब भी लिखता हूं तो एक तरफ संस्कृतनिष्ठ शब्दों के इस्तेमाल का आकर्षण होता है वहीं उर्दूधारी शब्दों का सम्मोहन भी कोई कम नहीं होता। अपना ऐसे में एक ही फलसफा होता है – बस अनुप्रास अलंकार वाली तर्ज पर कुछ बन जाय और लिखने के दौरान शब्दों का टोटा न पड़े , चाहे वो किसी भी गली या मोहल्ले से क्यों न हो । ऐसा नहीं है कि हिंदी व्याकरण पढ़ा नहीं मैंने लेकिन स्त्रीलिंग और पुल्लिंग वाली गलतियां अक्सर सामनेवाला खाने में तिलचट्टे की तरह अपने शुद्धिकरण वाले चिमटे से मेरे लिखे से निकालकर मेरे सामने पटक देता है। का और की के झमेले में मैं अक्सर खुद को परास्त पाता हूं।

हिंदी , मैथिली और ठेठी के बिंदुओं को मिलाकर बनते त्रिकोण के बीच लटकता त्रिशंकु कह सकते हैं हमें। सालों पहले की बात हैं। अपने यहां यानि कि दलसिंहसराय में रेलवे की टिकट-खिड़की पर पंक्तिबद्ध अपनी बारी के इंतजार में खड़े-खड़े सुस्ता रहा था । अचानक से एक महोदय आये और पंक्ति को नजरंदाज करते नकारते टिकट-खिड़की की तरफ लपके। मैनें अपनी सुस्ती को झटका और बोल पड़ा – भाई साहब देखते नहीं है कि लाइन लगी हुई है। महोदय भांप गये कि सामने वाला बाहर की हवा खाकर आया है । चट से बोल पड़े – जादा हिंदी मत बोलो। फिर ध्यान आया कि मुझे बोलना चाहिए था- लाइन नय दिखाय दे रहलय हन कि।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

नंदन ... बचपन के नंदन-कानन में

कोरोना ने साल 2020 का वैसे भी कबाड़ा कर रखा है। द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन की जबान पर मास्क महोदय पहरा दे रहे है। आना-जाना, खेलना-खिलखिलाना सब पर हजारों दिशा-निर्देशों की नकेल पड़ी है। ऐसे में आज जब इंटरनेटी दैनिक टहलकदमी में नंदन और कादंबिनी के प्रकाशन पर विराम से वाकिफ हुआ तो साल 2020 की मनहूसियत कुछ और गहरी होती हुई मालूम हुई । ... कुछ रिश्ते मील का पत्थर होते हैं। आपके सफर को पारिभाषित करते हैं। नंदन के साथ भी रिश्ता कुछ ऐसा ही है। यह रिश्ता शब्दों का भी है और संस्कार का भी ।

बचपन का स्वर्गिक संसार चिंता-फिक्र से कोसों दूर कल्पना, कुतूहल और दोस्तों के साथ खूब धमाचौकड़ी का होता है । दुनिया की भागमभाग की जगह कहानियों का काल्पनिक संसार होता है। मन में असंख्य सवाल सेकेंडों में आकार लेते है और उतनी तेजी से ही कोना पकड़ लेते हैं। पहले तो लोरियां और फिर दादी-नानी से राजा-रानी की कहानियां ... बच्चें एक कहानी से दूसरी कहानी के बीच झूलते-झमकते रहते हैं । ... वैसे भी उनकी जरुरत और होती ही क्या है-  उनकी फ़रमाइश तो बस टोकरी भर कहानी की होती है।

कहानियों की यही तलाश कॉमिक्स और बाल-पत्रिकाओं की ओर ले जाती है। बचपन में हमने भी खूब कहानियां पढ़ी। जब जो कॉमिक्स या बाल-पत्रिका हाथ में आई आद्योपांत पाठ के पश्चात ही हाथ से फिसल पाती। वैसे तो कई बाल-पत्रिकाएं थी- नंदन, नन्हे सम्राट, लोटपोट, बालहंस. चंपक आदि-आदि, लेकिन इन पत्रिकाओं में सबसे खास नंदन ही था । सारी पत्रिकाओं में सिरमौर। जहां तक कॉमिक्स का मामला था, वो तो किराए पर पढ़ने को मिल जाती लेकिन पत्रिकाओं को पढ़ने के लिए खरीदना ही पड़ता।

वर्णमाला और पाठ्य-पुस्तकों के साथ पाला पड़ा ही थी नंदन की घुसपैठ शुरु हो गयी थी। ... और फिर क्या था ज्यों-ज्यों उम्र बढ़ रही थी, नंदन के साथ रिश्ते भी घनिष्ठ होते चले गए। हर महीने हम नंदन का इंतजार करते। पैसे के सीमित प्रवाह के बीच कभी खरीद कर पढ़ते तो कभी इधर-उधर जहां भी नंदन महोदय विराजमान दिखते।

नंदन की कहानियों का एक अपना ही आकर्षण था ।  तेनालीराम महोदय भी अपनी चतुराई लिए हर महीने नंदन के पन्नों में अपनी बौद्धिक छटा बिखरते मिलते। एक चुनौती चित्र-मिलान कर अंतर ढ़ूढ़ने की होती। सबसे पहले अंतर ढ़ूंढ़ने के लिए हम मारा-मारी करते।... और एक सबसे खास बात जो नंदन की औरों से अलग थी... वो था- बाल समाचार। चार पन्नों में खबरों का संकलन- अखबारी कलेवर में। यह नंदन का सबसे भीतरी पन्ना होता। मैं कई बार पिन सीधी कर इन पन्नों को निकालकर उनका संग्रह करता । कई बार ऐसा लगता है कि पत्रकारिता के कोर्स में मेरे दाखिले का सूत्र नंदन के इन पन्नों से ही शुरु होता है।


शनिवार, 25 जुलाई 2020

समय और सांप ...

अब वर्चुअल का जमाना तो है ही और ऊपर से यह कोरोना-काल । सुबह से ही व्हाट्स ऐप पर हैप्पी नागपंचमी , नागपंचमी की शुभकामनाएं वाले संदेशों का तांता लगा है। कुछ दंशग्रस्त आस्तीन के सांपो का उल्लेख कर रहे हैं और कुछ संपोलो का भी।... लेकिन इन संदेशों की परत को पलट कर गौर फरमाएं तो सांप/नाग और नागपंचमी अब दोनों ही कुलांचे मारती- सरपट भागती इस सभ्यता और समय का शिकार हो गए हैं।

ऐसा नहीं है कि मैं कोई सांप विशेषज्ञ हूं लेकिन सांपो के प्रकार-आकार से बचपन और कुछ समय बाद तक पाला पड़ता रहा है। स्कूल में था तो कुछ साथी कहते थे कि यदि ढ़ोरहा सांप को आप छू ले तो पैसे की प्राप्ति होती है... अब ऐसे में जबकि जेब में पच्चीस/पचास पैसे का सिक्का खुशी का जलप्रपात था और स्कूल में मध्यातंर में फारगो मेंटल वाले डिब्बे में घूमती-विचरती पांच पैसे वाले बिस्किट और चॉकलेट पर ललचाई निगाह जाती तो फिर एक दो बार ट्राई मारने में आखिर हर्ज ही क्या था ?

वैसे जो सबसे ज्यादा परिचित सांप था – वो था हरा-हरा । नाम के मुताबिक ही हरे रंग का। कुछ कहते जहरलेस है । लेकिन सांप किसी भी वैराइटी का हो आखिर कौन उससे पंगा ले ?!!! और हम कोई संपेरे तो थे नहीं । आप कहीं जा रहे हो, किसी पतली गली से गुजर रहे हो... हरा-हरा अचानक से आपके सामने से सरसराता हुआ निकल जाता या फिर दीवार के नीचे से किसी बिल से झांकता हुआ दिख जाता । शायद बारिश के दिन थे । स्कूल के पीछे अंबे सिनेमा की तरफ जाती हुई एक गली थी। शाम की घंटी बजी। स्कूल से निकलकर अपने में मगन घर के रास्ते अपने दो पग डगमग बढ़ाए जा रहा था कि अचानक से हरा-हरा महोदय गली में किसी बिल से शायद मेरी तरफ लपके। मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम। सांप महोदय के प्रति वो डर अब भी मन-मस्तिष्त के किसी कोने में कायम है।

एक दूसरी वैराइटी जिससे पाला पड़ा वो था अधसर । तुलनात्मक रुप से भारी भरकम और कुख्यात । लोग कहते कि अधसर बहुत ही जहरीला सांप है। एक बार स्कूल की पांचवी-छठी क्लास के छप्पर से अधसर समुदाय के एक सदस्य जिमनास्टिक करते हुए लटके हुए थे। विद्यार्थी नीचे ज्ञान अर्जित कर रहे थे। किसी की नजर पड़ी और फिर हाहाकार मच गया। मैं भी बगल की चौथी कक्षा में ज्ञान अर्जन में जुटा था। खैर वीर पुरुषों और रणबांकुरों से इलाका खाली नहीं था। खनती-बांस के साथ पल भर में लोग मौके पर प्रकट हो गये। अधसर अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ।

एक वैराइटी करैत के बारे में भी खूब सुनने को मिलता । लोग कहते कि करैत का काटा पानी भी नहीं मांगता। करैत मारने की वीरगाथाएं भी खूब सुनने को मिलती। ... लेकिन हरा-हरा, ढ़ोरहा, अधसर के विपरीत करैत महोदय से कोई खास परिचित नही हो सका। खैर इसे मेरा सौभाग्य ही कहिए।

ऐसा नहीं है कि मैं केवल प्राकृतिक सांपो से परिचित हुआ। फिल्मों, पटाखों और कॉमिक्स की दुनिया में भी सांपों के कोई कम दर्शन नहीं हुए। राज कॉमिक्स वाले नागराज महोदय से तो मैं खासा परिचित था। त्वजा हरा-हरा सांप जैसी , बदन गठीला और मुख मनुष्य माफिक।... और मानवता की सेवा में सदा तत्पर। स्कूल की पढ़ाई के दौरान थोडांगा को पराजित करने से लेकर मानवता और ब्रह्मांड को चुनौती देती दानवी ताकतों पर उनकी विजय की घोषणा करते हर पवित्र पुस्तक का पाठ किया मैंने ।

दीवाली आती तो प्रदूषण उत्पादित करने के साथ-साथ हम नागदेवता का भी सृजन करते। पटाखों के जखीरे में सांप भी हमलोगों की पसंद में शामिल होता। गहरे लाल-काले रंग की कूट की डिब्बी में दस छोटी-छोटी काली गोटियां होतीं। किसी भी काली गोटी को निकालिए और प्रज्ज्वलित तीली से उसे परिचित कराइए... धुर काले रंग का एक सांप फनफनाते हुए प्रकट हो जाता । साथ में ढ़ेर सारे काले धुएं का आभामंडल ।

ऐसे में जबकि सिनेमा हमारी धमनियों और शिराओं दोनों में ही प्रवाहित हो रहा हो तो सिनेमाई सांपो-सांपिनों को कैसे भूल सकता है भला । बचपन में नगीना फिल्म शायद कुमार टॉकीज में देखी थी। फिर तो सांप के साथ-साथ संपेरों से भी डर लगने लगा ।

खैर बात नागपंचमी से शुरु हुई थी। बचपन में हमारे लिए नागपंचमी का मतलब दाल की पूड़ी ,खीर और आलू-गोभी की सब्जी थी । घर के बाहर कटोरी में दूध और मकई का लावा रखा जाता। नागपंचमी बुआ के यहां किसी और दिन मनती और हमारे यहां किसी और दिन । एक दिन वहां पूड़ी-खीर खाई जाती और एख दिन अपने यहां। बुआ के घर से आगे नागपंचमी का मेला भी लगता। तमाम आकार-प्रकार के सांपों के साथ संपेरे वहां आते। हालांकि सांपो के प्रति अपने डर को मन के किसी तहखाने में धक्का देकर मैं दो-तीन बार नागपंचमी का मेला घूम आया। खैर समय की चक्की में नाग और नागपंचमी दोनों ही पिसकर विलीन हो रहे हैं ।

विश्वविद्यालय में कदम रखा तो सांप के साहित्यिक संस्करण से दो-चार हुआ। मेरे एक तत्कालीन घनिष्ठ मित्र के कमरे में दरवाजा खोलते ही सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय की कविता- सांप बिल्कुल सामने दीवार पर चिपकी हुई थी।

सांप
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया ।
एक बात पूछूं—(उत्तर दोगे ??)
तब कैसे सीखा डंसना—
विष कहां पाया  ?

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

“टू लीव्स एंड अ बड”


भगवान ने प्रकृति को अनेक नियामतें दी है... वीको वज्रदंती के विज्ञापन की इस पंक्ति को यदि सवाल की शक्ल दी जाय यानि की यह सवाल प्रक्षेपित किया जाय कि आखिर प्रकृति कौन सी नियामत सबसे खास है ? ... तो मेरे मुख से जो पहला शब्द उच्चरित होगा , वो है चाय।





चाय सुखप्रदाता भी है, दुखहर्ता भी है। दवा भी है और दारु भी है। दिमाग में दर्द हो रहा हो, दिल ठिकाने पर न हो, मन ऊब रहा हो. समय काटे नहीं कट रहा हो ... समस्या किसी भी शक्ल, आकार-प्रकार की हो... चाय रुपी जादुई तरल आपके इहलोक को फटाफट बेहतर बना देता है।... खुशी का ज्वार उमड़ रहा हो, जिज्ञासा कुलबुला रही हो, अंदर कुछ फदफदा रहा हो, अंदर का कुछ बांध तोड़कर बाहर निकलने को हिलोरें ले रहा हो... चाय उस उबाल लेते समय का भी सबसे सुनहरा साथी  है। चाय की चुस्की के साथ भावनाएं भी संयत तरीके से पारितंत्र में विस्तारित या विसर्जित होती है।चाय गुरु भी है, सहयात्री भी है... अतीत, वर्तमान और भविष्य है।


चाय की दसियों वैराइटी है, बनाने के भांति-भांति के तरीके औऱ परोसने का अपना-अपना अंदाज। अपन तो सर्वहारा है। अपना तो एक ही तरीका है- सॉसपेन में आधा दूध-आधा पानी डालो, चायपत्ती, चीनी मिलाओ और मन भर तब तक उबालते रहो जबतक कि घोल सफेद से परिवर्तित होकर भूरा न हो जाय।




चाय बचपन से ही पसंदीदा सामग्री रही है। बचपन में सुबह-सुबह जगकर पढ़ाई करनी हो तो स्टील के कप में मिलने वाली गर्म-गर्म चाय के सहारे ही नींद की अभेद्य लगने वाली दीवार को भेद पाने में हम सफल हो पाते थे। मुद्रा की उतनी तरलता तो थी नहीं ऐसे में अक्सर बगल में बंका जी की दुकान से एक रुपए की चायपत्ती और इलायची लेने के लिए पहुंच जाते। चाय घर में सार्वजनिक रुप से बच्चों के लिए मना था, लेकिन पापा से छुप-छुपाकर हमलोग खूब चाय पीते। चाय का क्रेज इतना कि पापा जब काम के सिलसिले में कलकत्ता जाते तो कई बार हमलोगों का डिनर चाय-रोटी होता। बचपन में चाय के साथ की यह मोहब्बत अब तक बदस्तूर जारी है।

दसवीं पासकर जब पटना पहुंचा तो घर से दूर अजनबी शहर में चाय ने ही बांह थामी। कभी मुसल्लहपुर हाट के पास तो कभी महेंद्रू डाकखाने के पास। चायदुकानों पर चाय पीने के साथ-साथ वहां समाचारपत्र का भी खूब सेवन किया जाता। मुसल्लहपुर के चायदुकानों में उन दिनों टेलिविजन अवतरित हो चुका था। चाय प्रेमियों के लिए आकर्षण के तौर पर अब समाचारपत्र के साथ-साथ टेलिविजन भी पंक्तिबद्ध था। दर्जनों हाथों से गुजरने के बाद समाचारपत्रों के पन्नें इस कदर घिस जाते मानो बख्तियार खिलजी से खुद को बचते-बचाते नालंदा से सीधे चाय दुकान पर ही प्रकटित हुए हों। लेकिन टेलिविजन के आगमन से एक नई बात हुई। चाय की दुकान पर अब गंभीर चाय प्रेमियों की जगह खलिहरों की भीड़ खूब जमा होने लगी। क्रिकेट मैचों के समय स्थिति और विकट हो जाती। अब जहां समस्या होती है वहां समाधान की धार फूट ही जाती है। दुकानदार भी रह-रहकर बैठी-खड़ी भीड़ से चाय के लिए पूछने की प्रक्रिया शुरु कर देता। पर्याप्त ग्राहक नहीं दिखते तो चैनल बदल दिया जाता। खैर भीड़ का क्या था ... भीड़ की चाय के प्रति कोई सच्ची निष्ठा और निष्काम समर्पण तो था नहीं वो किसी दूसरे चाय दुकान की और प्रवाहित हो जाती।



चाय के साथ रिश्ता बनारस में ग्रेजुएशन के दौरान और ज्यादा गहराया। होस्टल की कैंटीन मेरे कमरे के काफी करीब थी। बस कमरे के बाहर से चिल्लाने भर की देर थी कि चाय का ग्लास हाजिर। इसी काल में निशाचरी प्रवृति भी काफी बढ़ गयी थी। कॉमन रुम जब अर्द्धरात्रि के पश्चात शांति की अवस्था को प्राप्त होने को होता तो हम जैसे कुछ निशाचरों की चपेट में आ जाता। स्टार गोल्ड या किसी और चैनल पर... जिस पर भी किसी फिल्म पर आंख अटक जाती हम अपना समय खपाने में जुट जाते। होस्टल से निकलते ही एक चाची जी की दुकान थी जो तड़के ही चाय पिलाने का पुण्य कर्म शुरु कर देती थी। और कई बार सूर्योदय बेला तक कॉमनरुम प्रवास के बाद सीधे चाची की चाय की दुकान पर दस्तक देते।... या फिर कुछ उत्साही दोस्तों की संगत मिल जाती तो रात्रि के किसी भी हिस्से में चाय की प्राप्ति के लिए सिंहद्वार लांघकर लंका भ्रमण को निकल पड़ते। चायखोरी के दरम्यान कुछ मित्र बनें, कुछ से मित्रता प्रगाढ़ हुई और भांति-भांति के भारी-भरकम विचारों से लबालब ज्ञानवान मिलें।



ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय की शरण में आया। मानसरोवर छात्रावास की छत मिली। प्रांगण में ही पंडित जी की चाय दुकान थी। पंडित जी मेरे ही जिले के थे, लेकिन चाय का स्वाद से कोई लेना-देना नहीं था... यह भी कह सकते हैं कि दोनों के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। चाय छात्रावास में मानो एक परंपरा थी, जिसका हर कोई निर्विकार भाव से निर्वाह किए जा रहा था ।

चाय अपने विविध आयामों में और विस्तारों से मुझे सहारा देती रही है और समृद्ध भी करती रही है। ऐसे में जब शादी के बाद नववधू के साथ कहीं बाहर घूम आने का रस्म निभाने की बारी आयी तो अब तक के हमसफर चाय का शुक्रिया अदा करने में कैसे पीछे रह सकता था भला। केरल घूमने की आइटीनरी में मुन्नार और वहां के चाय बगान और कारखाने की मानो खुद-ब-कुद एंट्री हो गयी। चाय मुन्नार में पर्यटन की शक्ल में दिखी। चाय का यह नवीन रुप मेरे सामने था।





कुछ दिनों पहले बापू से संबंधित कोई किताब पढ़ रहा था। चाय वहां प्रतिरोध की वेशभूषा में नमूदार थी। महात्मा गांधी ने दांडी में नमक कानून तोड़कर पूरे देश को आंदोलित कर दिया था। बरतानिया हुकूमत गांधी जी का लोहा मानने के विवश हुई थी। चर्चिल के शब्दों में एक फकीर राजमहल की सीढ़ियों पर चहलकदमी कर रहा था। महात्मा गांधी और वायसराय इर्विन के बीच वार्ता चल रही थी। देश भर की निगाहें वायसराय हाउस पर टिकी थी। वायसराय इर्विन ने महात्मा गांधी को चाय पीने का ऑफर दिया । गांधी जी ने चट से नमक की पुड़िया अपने पास से निकालकर अपनी चाय में मिला ली और फिर चाय सुड़कने लगे। ब्रिटिश सत्ता के समक्ष चाय सत्य और अहिंसा की शक्ल में प्रतिरोध का औजार बनकर प्रस्तुत हुई।

गोस्वामी तुलसीदास रामचरितमानस में लिख गए है- हरि अनंत, हरिकथा अनंता। अपने अब तक के संक्षिप्त जीवन और चुटकी भर ज्ञान को साक्षी मानकर कहूं तो चाय के भी अनंत रुप हैं और खैर चाय से जुड़ी कथाएं अनंत तो है हीं। इन्हीं अनंत चायकथाओं में एक चायकथा मेरी भी।

मंगलवार, 9 जून 2020

कंपीटिशनवाला इन तिरहुत


सन 1878 ई में प्रकाशित लाइफ इन द मुफ्फसिल, ऑर, द सिविलियन इन लॉअर बंगाल”(वॉल्यूम-1) किताब आईसीएस जॉर्ज ग्राहम के भारत में उनके करियर के सफर के शुरुआती हिस्से और बंगाल खासकर तिरहुत जिले में उनके अनुभवों का संस्मरण है। उनके करियरी सफर की शुरुआत होती है उन्नीसवीं शताब्दी के सतरवें दशक से यानि सन 1857 की भारतीय क्रांति के कुछ सालों बाद से ही ... इसी कालखंड में इंग्लैंड में सीमित प्रतियोगिता परीक्षा के द्वारा भारतीय सिविल सेवा में नियुक्ति की शुरुआत हुई थी । जॉर्ज ग्राहम इसी प्रतियोगिता परीक्षा में सफल होकर भारत के अपने सफर की शुरुआत कर रहे थे। शुरुआती सालों में प्रतियोगी परीक्षाओं के जरिए आए हुए ये सिविल सेवा के अधिकारी भारत में पहले के अँग्रेज़ अधिकारियों के बीच तिरछी निगाहों से देखे जाते थे। ... और इन अधिकारियों के लिए एक शब्द था- कंपीटिशनवाला। अभी सुनने में भले ही यह अजीब लगे , लेकिन तब बाप-दादा-चाचा की सिफारिशों से आए `इलीट` इन्हें अपनी तुलना में कमतर आंकते और इन्हें किताबी कीड़ा और घुसपैठिया समझते। और उनकी नजर में चूंकि ये निदेशक द्वारा नामांकित नहीं थे या हेलीबेरी से पढ़कर नहीं निकले थे, इसलिए इन कंपीटिशनवालों के तौर-तरीके उतने रिफांइड नही थे, जितने होने चाहिए औऱ यह भी कि न तो ये ढ़ंग से घुड़सवारी कर सकते हैं और न ही ढ़ंग से निशानेबाजी।



जॉर्ज ग्राहम समुद्री जहाज लेडी एलेनबोरो से एक सौ बयालीस दिन की यात्रा के बाद भारत पहुंचे। तीन महीने के सफर का अनुमान था, लेकिन डाउंस से कलकत्ता का उनका सफर करीब 5 महीने में पूरा हुआ । उनके आने तक सिविल सेवा में आए अधिकारियों को अंदरुनी इलाकों में अपनी सेवा शुरु करने से पहले दो भाषाओं की परीक्षा में सफल होना होता था। पंजाब, अवध और उत्तर-पश्चिम के प्रांतों के लिए फारसी और हिंदी एवं बंगाल में सेवा  के लिए हिंदुस्तानी और बंगाली। परीक्षा मासिक तौर पर होती थी और एक समय में एक ही भाषा की  परीक्षा दी जा सकती थी । बोर्ड ऑफ एक्जामीनर्स के द्वारा दूसरी भाषा की परीक्षा तब तक नहीं ली जाती थी ,जबतक कि पहले में आप पास न हो गए हों। हालांकि इन नियमों में बाद में बदलाव किए गए।

जॉर्ज ग्राहम साहब के हिस्से हिंदुस्तानी और बंगाली आयी। हिंदुस्तानी की सीख के लिए उनका मुख्य टेक्स्ट बुक था- बाग-ओ-बहार और बंगाली के लिए बैताल पुंशविंशति उर्फ बैताल पच्चीसी- बैताल की पच्चीस कहानियां। सिविल सेवा में आए ब्रिटिश अधिकारी इसके लिए पंजीकृत/चिह्नित मुंशियों के जरिए इन भाषाओं की समझ विकसित करते। इन मुंशियों के लिए मुंशी अलावएंस का प्रावधान होता था। खैर जॉर्ज ग्राहम साहब भाषाओं वाली परीक्षा में सफल हुए और अब बंगाल के अंदरुनी इलाकों में काम करने के लिए एलीजिबल थे।

जॉर्ज साहब ने लिखा है कि उन दिनों में जबकि बिछायी रेल-पटरियां आसानी से गिनी जा सकती थी, स्टेशन/कार्यालय ज्वाइन करने के समय के संबध में पुराने नियम ही लागू थे।... यानि उनके लिए करीब एक सप्ताह तैयारी के लिए और पैंतीस दिन यात्रा के लिए समय था । जॉर्ज ग्राहम को मुजफ्फरपुर पहुंचना था। तब तिरहुत जिले का मुख्यालय मुजफ्फरपुर में था और दरभंगा इसका सब-डिविजन जिसका मुख्यालय दरभंगा शहर में न होकर उस समय बहेड़ा में था । भागलपुर तक करीब आधी दूरी रेल के जरिए तय की। फिर भागलपुर से चार बैलगाड़ियों में सामान मुजफ्फरपुर के लिए रवाना किया गया साथ ही उनके घोड़े भी कूच कर गए। फिर रेलवे वाली ट्रॉली के जरिए सुल्तानपुर तक पहुंचे... फिर इंजन के जरिए जमालपुर तक... रेल की पटरियां अभी बिछ ही रही थी। आगे पटना तक का सफर घोड़े और पालकी से तय किया उन्होंने।

जॉर्ज ग्राहम ने लिखा है कि बिहार प्रांत छह जिलों में बंटा है , जिसका कुल क्षेत्रफल 23,732 वर्ग मील और 1872 की जनगणना के मुताबिक जनसंख्या 13,123,529 है, जिसका प्रशासन पटना कमिश्नर के द्वारा देखा जाता है। पटना बिहार प्रांत का मुख्यालय है और पटना कमिश्नर के ऊपर लेफ्टिनेंट-गवर्नर और उसके ऊपर भारत के गवर्नर-जनरल। और हां रैंक और वेतन-भत्तों के लिहाज से उनके बाद ओपियम अजेंट का नंबर आता है । ग्राहम साहब ने पीडब्ल्यूडी का जिक्र करते हुए लिखा है कि इस विभाग से बाहर के लोग मजाक से इसे पब्लिक वेस्ट डिपार्टमेंट भी कहते हैं। ग्राहम साहब का पटना में ठिकाना वहां का यूरोपीय इलाका बांकीपुर था।

भारतीय दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता लागू होने के अभी शुरुआती दिन थे। ऐसे में पटना की एक पार्टी में सुनकर वो चौंक गए कि जब एक युवा अंग्रेंज पुराने सुनहरे दिनों की मन मसोस कर याद कर था कि पहले कोई नौकर कैंटनमैंट के दायरे में कोई गलत व्यवहार करता था तो उसे उसके मालिक-मालकिन एक नोट के साथ कैंटनमैंट मैजिस्ट्रेट के पास भेज देता था कि पत्रवाहक को निर्धारित संख्या में बेंत लगाए जाए और उसका अनुरोध मैजिस्ट्रेट द्वारा स्वीकार लिया जाता था लेकिन अब के दिनों में किसी यूरोपीय की तरह स्थानीय लोगों के मामले में भी केस दर्ज कराना पड़ता है।

खैर ग्राहम साहब पहले नाव के जरिए हाजीपुर और फिर घोड़े के जरिए मुजफ्फरपुर तक पहुंचे। जॉर्ज ग्राहम ने मुजफ्फरपुर के बारे में विस्तार से बताते हुए लिखा है कि उत्तर की ओर देखने पर बर्फ से लदी हिमालय की चोटियां भी धुंधली-धुंधली दिखाई देता है। दरभंगा राज का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि उस समय दरभंगा के राजा के कम उम्र की वजह से जमींदारी सरकार की देखरेख में थी और अंग्रेज सरकार के द्वारा नियुक्त मैनेजर अपना अधिकांश समय मुजफ्फरपुर के सिंकदरपुर में महलनुमा इमारत में ही अधिकांश समय बिताते थे।

नई पुलिस व्यवस्था अभी लागू नहीं हुई थी। जिला पुलिस कार्यक्षेत्र के नजरिए से थानों में बंटा हुआ था, जिसका मुखिया दारोगा होता था, जिसके नीचे नायब यानि डिप्टी दारोगा और फिर बरकंदाज यानि कॉस्टेंबल थे। थानों से दैनिक रुप से रिपोर्ट आती थी और ज्वाइंट मैजिस्ट्रेट इसे देखते-सुनते थे।

नई दंड संहिता और आपराधिक प्रक्रिया संहिता उस साल लागू हुई थी और मैजिस्ट्रेट के लिए अपने हाथ से एवीडेंस अगंरेजी में नोट करना, स्थानीय भाषा में गवाह को उसे पढ़कर सुनाना और फिर यह पूछना जरुरी था कि कि ये सही है या नहीं। शिकायतकर्ता के द्वारा शपथ लिया जाने की प्रक्रिया को पूरा करना भी टेढ़ी खीर लगती थी। उन्होंने लिखा है कि पहले जहां हिंदू गंगाजल , गाय की पूंछ और बड़े बेटे के सिर पर हाथ रखकर सच बोलने की कसम लेते थे, वहीं अब उन्हें एक निश्चित शपथ लेनी पड़ती थी । हिंदू और मुसलमान के नए शपथ में अंतर बस इतना था कि मुस्लिम धर्म की जगह इमाम बोलते थे वहीं परमेश्वर की जगह खुदा। उन्हें तिरहुत के कलेक्टर साहब ने शुरुआती दिनों में ही गुरु मंत्र दिया कि सिविल सेवा के अधिकारी सब कुछ पता होना चाहिए या फिर जताना चाहिए कि उसे सब कुछ पता है।


जॉर्ज ग्राहम ने लिखा है कि अदालत में गवाहों से जिरह करते हुए कुछ सवाल तय होते हैं और गवाह भी उसी मुताबिक तैयार होकर आते थे। जैसे अमूमन पहला सवाल होता है- क्या आप वादी के रिश्तेदार है , दूसरा- कौन पहले आया ... आप या दूसरे गवाह। तीसरा कि जब घटना घटी तो आप किधर थे- उत्तर, दक्षिण, पूरब या पश्चिम । उन्होंने लिखा है कि बायें और दाएं बोलने के बजाय यहां लोग पूरब या पश्चिम बोलते है। एक बार वो जब शिकार पर निकले तो उनका चपरासी सिगार जलाने के लिए जला हुआ गोइंठा या उपला लेकर आया । उनके सिगार का छोर ठीक से जला नहीं । चपरासी ने बोला हाकिम सिगार को थोड़ा पश्चिम में कीजिए न।

उन्होंने लिखा है हमलोगों पर अक्सर आरोप लगता है कि स्थानीय लोगों से मेलमिलाप की हमारी कोई इच्छा नहीं होती , लेकिन ऐसे में कोई क्या मेल-मिलाप करेगा जबकि जबकि सामने वाले को यह लगे कि वो हमारे छुने से ही अपवित्र हो गया है और वो उस खाद्य पदार्थ को नहीं खाएगा, जिसपर हमारी छाया पड़ी हो। उन्होंने लिखा है कि दरभंगा महाराज जिनका देहांत कुछ समय पहले हुआ है जो कि ठीक-ठाक अगंरेज अधिकारियों के संपर्क में रहते हैं, उनके बारे में यह पता चला है कि  वो अग्रेंज अधिकारियों से मिलने के बाद वापस घर लौटने पर तुरंत कपड़े बदलते थे और उन्हें तब तक दुबारा नहीं पहनते थे जब तक कि उसे अच्छी तरह से पवित्र न कर लिया गया हो और साथ ही वे खुद को भी शुद्ध करते थे। उन्होंने अपने साथ हुई एक घटना का भी जिक्र किया है। दरंभंगा के असिस्टेंट मजिस्ट्रेट के तौर पर वो एक सुबह किसी गांव से गुजर रहे थे और मुखियाओं से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने जब पानी लाने के लिए कहा और एक नए मिट्टी के बर्तन में उनके लिए पानी लाया गया। वो घोड़े पर बैठे थे ।जब उन्होंने पानी पी लिया तो उनसे कहा गया कि बर्तन को दूसरी तरफ बचे हुए पानी समेत फेंक दें । जिससे कि गांव में वो बर्तन दुबारा इस्तेमाल में न आ सके और न ही पानी की कोई बूंद उन लोगों के करीब पहुंचे। उन्होंने लिखा है कि उन्होंने थोड़ा सा भी नहीं सोचा कि इससे मुझे बुरा लगेगा, लेकिन मैने उनके कहे अनुसार ही किया।

उन्होंने लिखा है कि मुजफ्फरपुर में अधिकारियों के बीच की एक पार्टी में एक अँग्रेज़ डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उन्होंने उस दिन ऊंची जाति की एक महिला के पैर का ऑपरेशन उसे देखे बिना किया ,सिवा उस हिस्से को छोड़कर जिसका उन्होंने ऑपरेशन किया। पर्दे में एक छेद से महिला के पैर को डॉक्टर साहब की तरफ किया गया और एक ब्राहम्ण ने जो कि दवाईओं के बारे में थोड़ा-बहुत जानता था क्लोरोफॉर्म के उपयोग में मदद की।

मुजफ्फरपुर में उनके दिन ठीक-ठाक गुजर ही रहे थे कि ग्राहम साहब को दरभंगा सब-डिविजन का चार्ज मिला। तब दरभंगा सब-डिविजन का मुख्यालय बहेड़ा से दरभंगा शहर में स्थानांतरण करने की प्रक्रिया चल रही थी। दरअसल जब दरभंगा राज की जमींदारी कोर्ट ऑफ वार्ड के प्रबंधन में आई तो यूरोपीय मैनेजर को दरभंगा में भी रहना पड़ता था और मैजिस्ट्रेट कोर्ट के लिए बहेड़ा तक जाना उसे काफी असुविधाजनक लगता। उसने इस बात की सिफारिश की कि चूंकि दरभंगा तिरहुत जिले का सबसे बड़ा शहर है ऐसे में कोर्ट का दरभंगा में ही होना सही रहेगा। उसने मैजिस्ट्रेट के रहने और कोर्ट के लिए दो इमारत देने का भी प्रस्ताव रखा। सरकार ने उसके सिफारिश और प्रस्तावों को मंजूरी दे दी और ग्राहम साहब को दरभंगा जाने के लिए मिले आदेश के समय बहेड़ा से सब-डिविजन ऑफिस का सारा तामझाम दरभंगा ले जाया जा रहा था।

जॉर्ज ग्राहम साहब ने अपने संस्मरण में मुजफ्फरपुर में होने वाले सालाना मीट, नेपाल की तराई के इलाके और मुजफ्फरपुर के पास शिकार के अनुभव और सोनपुर मेले के दौरान यूरोपीय लोगों के मिलन समारोह का भी जिक्र किया है। लाइफ इन द मुफ्फसिल, ऑर, द सिविलियन इन लॉअर बंगाल तत्कालीन बिहार को ब्रिटिश शासकीय दृष्टि से समझने का , प्रशासन और समाज के संबंधों को जानने के लिहाज से खासा महत्वपूर्ण है। जॉर्ज ग्राहम के अपने बायसेस हैं, स्थानीय लोगों की चर्चा करते है तो कई बार श्रेष्ठता का उनका दंभ भी दिखता है और साथ-साथ ही उनकी स्वीकारोक्तियां भी है।



रविवार, 31 मई 2020

ये उस समय की बात है...


सब्जियों वाले बगीचे में कुएं के किनारे मेरा भी एक छोटा सा हिस्सा था, जिसके बगल में मुख्य माली की झोपड़ी थी, जिसमें वो रहता था। मुझे अपनी इन उगाए गयी चीजों पर गर्व था और एक दिन जब मैनें देखा कि मेरे पेड़ों को पानी की जरुरत हैं और जब मैने इस संबंध में कदम उठाया तो फिर भारत की जाति व्यवस्था का पता चला।... कुएं के बगल में पानी से भरा बर्तन था। मैने उसे उठाया , लेकिन मुख्य माली ने जिसे मैं अपना दोस्त और सलाहकार समझती थी, उसने उसे छीन लिया और जमीन पर पटक दिया। मैने अविश्वास से उसे घूरा लेकिन उसके चेहरे पर जबरदस्त गुस्से को देखकर अपने बंगले और मां के पास दौड़ी चली गयी। हांलाकि उनके लिए मुझे पूरी तरह से समझाना असमभंव था कि कुछ हिंदू यह समझते हैं कि यदि किसी गैर-हिंदू ने उनके खाने या खाने के बर्तनों को छुआ तो वो अब अपवित्र हो जाते हैं और उनका फिर से उपयोग नहीं हो सकता। इसका किसी के गरीब या अमीर होने से मतलब नहीं है, इसका मतलब इस बात से हैं कि आपने किस जाति में जन्म लिया है। आप हिंदू नहीं बन सकते , आप हिंदू बनकर जन्म लेते हैं। महाराज जो कि मिलिनेयर थे और माली जो कि काफी गरीब था, दोनों ही जन्म से ब्राह्मण थे। हमारे घरेलू नौकर जो कि निचली जाति के थे, खासकर स्वीपर और हालांकि उन्हें माली की तुलना में ज्यादा मेहनताना मिलता था लेकिन वो उसके द्वारा नीची निगाहों से देखे जाते थें।

( जोआन एलन की किताब मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर गल नॉर्दर्न इंडिया, 1913-1970  का एक अंश )



जोआन एलेन आगे लिखती है कि महाराज अपने गैर-हिंदू अतिथियों की शानदार खातिरदारी करते थे और खाने की मेज पर उनके साथ बैठते भी थे , लेकिन न तो वे खाने को छूते थे और न ही उनके सामने खाना खाते थे।

जोआन के पिता जॉन हेनरी दरभंगा महाराज के स्वामित्व वाले पंडौल एस्टेट के मैनेजर थे और फिर दरभंगा महाराज ने जब कलकत्ता के मैनेजिंग एजेंट्स के साथ मिलकर पंडौल से केवल छह मील की दूरी पर चीनी का कारखाना लगाने का फैसला किया तो उन्होंने जॉन हेनरी को चीनी कारखाने का मैनेजर बनाया।

जोआन की लिखी इस किताब की शुरुआत होती है सन 1896 से जब जोआन के पिता अलस्ट्र, ब्रिटेन से भारत के लिए रोजगार के सिलसिले में निकले। नील की खेती से जुड़े लेकिन फिर अफ्रीका में चल रहे बोअर युद्ध के लिए भारत से निकल अफ्रीका पहुंच गए। यहां बताता चलूं कि महात्मा गांधी भी इस कालखंड में अफ्रीका में थे और बोअर युद्ध में अंग्रेजों की मदद के लिए उन्हें केसर-ए-हिंद का तमगा भी मिला था, जिसे जालियांवाला बाग नरसंहार के बाद उन्होंने लौटा दिया था। बोअर युद्ध से वापस लौटने के बाद दरभंगा महाराज ने उन्हें पंडौल एस्टेट का मैनेजर नियुक्त किया और फिर मुजफ्फरपुर में होने वाले सालाना मीट में मेबल यानि की अपनी होने वाली पत्नी से भी मुलाकात हुई।

जोआन का जन्म सन 1913 बिहार में हुआ में और शादी दरभंगा में ज्यॉफ्री एलेन से हुई जो कि दरभंगा राज के ही मुलाजिम थे, जो बाद में उनके पिता की ही तरह पंडोल एस्टेट के मैनेजर भी बने। ज्यॉफ्री ने द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लिया और युद्धबंदी बने। फरार होकर किसी तरह अपनी जान बचाई और फिर भारत में उत्तर-पूर्व के मोर्चे पर जापानियों के विरुद्ध लड़ाई के लिए भी गए। ज्यॉफ्री फिर पॉलिटिकल सर्विस में आए । एलेन दंपति आजादी के बाद भी काफी लंबे समय तक भारत में रहे... ज्यॉफ्री पहले भारत सरकार के मुलाजिम के तौर पर और भी चाय बगानों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था इंडियन टी असोशिएशन के अधिकारी के तौर पर।.... और फिर 1970 में भारत छोड़कर एलेन दंपत्ति ब्रिटेन चले गए।




जोआन एलेन की यह किताब सन 1913 से 1970 तक उनके किशोरावस्था/युवावस्था के कुछ सालों को सालों को छोड़कर भारत में उनके द्वारा बिताए गए समय और अनुभव का विवरण है। ब्रिटेन से हजारों मील दूर बिहार के सुदूर इलाके में , जबकि मीलों दूर तक कोई यूरोपीय परिवार नहीं हो, जोआन एलन का बचपना बीता, शादी हुई और फिर बच्चे हुए। यह किताब उस समय के ऐसे यूरोपीय परिवारों-लोगों के मनोभावों, उनके और स्थानीय भारतीय समुदाय के बीच के डायनेमिक्स, स्थानीय सामाजिक स्थिति को जानने का दस्तावेज भी है।

किताब में सन 1934 में बिहार में आए विनाशकारी भूंकप से जुड़े अनुभवों का भी उल्लेख है। जोआन ने लिखा है कि 15 अगस्त 1934 ई. का दिन हमारे लिए काफी डरावना था, उस दिन दोपहर के करीब 2 बजकर 13 मिनट पर भूंकप आया था। "...यह मेरे पिता औऱ मेरे लिए दोपहर के आराम का समय था। उन्होंने लिखा है कि मैं अपने बिस्तर से बाहर जाने के लिए भागी लेकिन जमीन रोलर-कोस्टर की तरह बर्ताव कर रही थी। सामने का लॉन समुद्र की तरह था। वहां घास की सतह की बजाय उसमें तेज लहरें चल रही थी। दो कार जो गैराज के बाहर थे नृत्यरत जोड़े की तरह आगे-पीछे हो रहे थे और जैसे ही नजर उनपर गयी, उसी समय मेरे पैरों के नीचे की जमीन फट गयी, मेरे अगल-बगल दरारें पड़ गयी और इनसे काफी ऊंची गर्म कीचड़ निकलने लगी। मेरे पिता ने हाल ही क्रिसमस में रोलीफ्लैक्स कैमरा दिया था और मैनें सोचा की इसकी तस्वीर लेनी चाहिए और फिर भय की परवाह न करते हुए अंदर जाकर मैं कैमरा ले आई। हालांकि तब तक जमीन से निकल रहे ऊंचे गर्म कीचड़ की तीव्रता काफी कम हो गयी थी।..."



किताब में एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के अभियान के पायलट फ्लाइट लेफ्टिनेंट मैक्आइंटर का भी जिक्र है। त्योहारों और दूसरे मौकों पर पंडौल और दूसरे एस्टेट से सभी हाथियों को दरभंगा लाया जाता, जहां महाराज अपने महलों में रहते। महाराज की अगुआई में शहर के सभी ईलाकों में जुलूस निकलता और उच्चाधिकारियों को साथ चलने का आमंत्रण देकर उन्हें सम्मानित किया जाता। जोआन भी जब ऐसे ही एक जुलूस में हाथी की सवारी कर रही थी तो उनके साथ फ्लाइट लेफ्टिनेंट मैक्आइंटर थे जो कि एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के अभियान के पायलट थे। दरभंगा महाराज ने हिमालय की तलहटियों में पूर्णिया में अपने एक महल को बेस के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए इस अभियान दल को दिया था, जहां से वे एवरेस्ट की फोटोग्राफी के लिए उड़ान भरते।

जब-जब जो जो होना है, तब-तब सो सो होना है । जोआन एलन की किताब - मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर इन नॉर्दर्न इंडिया, 1913-1970 की खुद के हाथों में कहानी का सारांश भी यही है।

बिहार में यूरोपीय व्यापारियों-प्रशासकों-यात्रियों के अनुभवों-चित्रों से गुजरते हुए एक रोचक शीर्षक पर जाकर ठिठक गया । किताब का शीर्षक था- मिस्सी बाबा टू बड़ा मैम- द लाइफ ऑफ अ प्लांटर्स डॉटर इन नॉर्दर्न इंडिया. 1913-1970। शीर्षक कुछ हटकर था । किताब की इंंटरनेटी समंदर में तलाश शुरु कर दी । ई-कॉमर्स साइटों पर किताब नदारद थी। ... सोचा सीधे पब्लिशर से ही पता करुं । जोआन एलेन की लिखी इस किताब को प्रकाशित किया है बक्सा, लंदन ने।





बक्सा यानि कि ब्रिटिश असोशिएशन ऑफ सीमेट्रीज इन साउथ एशिया । बक्सा का मकसद दक्षिण एशिया और एशिया की दूसरी जगहों पर पहले की यूरोपीय लोगों की कब्रिस्तानों के रखरखाव और संरक्षण के साथ-साथ इससे जुड़े सौंदर्यीकरण और इसके संबंध में जागरुकता लाने का है। बक्सा की साइट पर इसके द्वारा प्रकाशित किताबों की एक सूची भी है। नजर दौड़ायी तो तो विलियम आर्चर औऱ मिल्फ्रैड आर्चर की सन 1931 से भारत की आजादी तक उनके द्वारा बिहारे में बिताए गए समय से जुड़ी उनकी आत्मकथा ने भी मुझे आकर्षित किया। दोनों ही किताबों के लिए बक्सा से संपर्क किया। जेब हल्की ही रहती है तो किताब सबसे सस्ते पोस्टल सर्विस से भेजेने को कहा। किताब की खरीद राशि का भुगतान करने के लिए पेपाल पर अपना खाता भी खोला । बक्सा वाले बंधु ने कहा कि किताब डिलिवर हो जाए तो भुगतान करिएगा।... लेकिन किताबें डाक-व्यवस्था की रपटीली राहों पर रास्ता खो बैठी।  बक्सा वालों से संपर्क किया तो धैर्य धारण करने की सलाह मिली और साथ में ढ़ाढ़स भी । समय-समय पर डाकखाने की परिक्रमा औऱ डाकिया महोदय से भी दरख्वास्त करता रहा। लेकिन शायद उन किताबों की मंजिल ही कुछ और थी। दुखद यह थी कि बक्सा वालों के पास भी इंडिया सर्व्ड एंड ऑब्जर्व्ड की आखिरी कॉपी ही थी। दुख और ज्यादा गहरा हो गया। महीनों इस तरह गुजर गए , लेकिन उम्मीद का दामन अब भी नहीं छोड़ा सा मैने । कुछ महीनों बाद अचानक से आमेजन पर जोआन एलन की किताब नजर आयी और फिर मैने झट से समय गंवाए बगैर किताब का ऑर्डर कर दिया।

अब बात किताब के रोचक शीर्षक पर। दरअसल मिसी बाबा का संबोधन यूरोपीय किशोरियों-युवतियों के लिए उनके भारतीय नौकरों द्वारा प्यार से किया जाता था, वही बड़ा मैम यरोपीय परिवारों की बड़ी मेमसाहिबों के लिए।

शनिवार, 23 मई 2020

मुड़-मुड़ के ...


कोई भी किताब हाथ लगी और शीर्षक पढ़ने के बाद थोड़ी सी भी उम्मीद झलकी तो सबसे पहले इंडेक्स वाले पन्नों को पलटता हूं । दलसिंहसराय, समस्तीपुर, दरभंगा, बिहार, पटना की तलाश करता हूं... या कुछ और शब्द जो इसके इर्द-गिर्द मंडराते हों। अपने इलाके के अतीत को जानने की जिज्ञासा और कुलबुलाहट किसे नहीं रहती। इतिहास और राजनीति-विज्ञान वैसे भी स्नातक में मेरे विषय रहे हैं। ऐसे में यह जिज्ञासा तो नैसर्गिक है । इधर आजादी से पहले बिहार में समय बिता चुके कई विदेशियों के संस्मरण पढ़े हैं, कुछ अंग्रेज अधिकारियों के अनुभवों को भी पढ़ा है। आमेजन, फ्लिपकार्ट पर भी गाहे-बेगाहे किताबों को ढ़ूंढ़ता रहता हूं।

कुछ सालों पहले इंटरनेट पर विचरते महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन की वेबसाइट पर जा पहुंचा। मन प्रसन्न हो गया । कितना कुछ, कितने ही कोनों में हमारे आस-पास होता रहता है और हम उससे अनजान रहते है । वेबसाइट पर फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित किताबों की एक अच्छी-खासी सूची थी और उस पर से तुर्रा यह कि सारी किताबें अपने ही इलाके से जुड़ी । फटाफट कुछ किताबों को दरभंगा से मंगवाने का जुगाड़ भिड़ाया।... और इन्हीं किताबों में से एक है- ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ बिहार – यूरोपियन डिस्कोर्सेस, जिसके लेखक हैं कलकत्ता विश्वविद्यालय में इस्लामिक इतिहास और संस्कृति विभाग में प्रोफेसर रहे श्री अनिरुद्ध रे। किताब में इंट्रोडक्शन यानि परिचय लिखा है पटना विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग में प्रोफेसर रहे श्री सुरेंद्र गोपाल ने।



किताब क्या था...  रहस्यमयी तिलिस्म की चाबी थी या फिर अपने अतीत की पोटली.... आईना था विदेशियों की नजर से सत्रहवीं से उन्नींसवीं सदी के बिहार को जानने का। अग्रेंज, फ्रेंच, जर्मन अधिकारियों, यात्रियों, व्यापारियों, पुजारियों की नजर से देखा गया बिहार । कोई भी विषय, व्यक्ति , स्थान, संस्कृति एकांगी नही होती, बहुपक्षीय होती है। सबकी अपनी-अपनी दृष्टि , अपनी-अपनी पसंदगी-नापंसदगी, अपने-अपने बायसेस ।

लेखक के शब्दों में किताब का उद्देशय सोलहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी के शुरुआती सालों में यूरोपीय यात्रियों के लिखे पर नजर डालना है । किताब के शुरुआती अध्याय में बिहार में गतिविधियों के केंद्र के बिहारशरीफ से हटकर फिर से पटना के केंद्र बन जाने की कहानी है। बिहारशरीफ की ओर मुड़ने वाली गंगा नदी की शाखा सिकुड़ रही थी और पटना हुगली से नदी मार्ग और दिल्ली और आगरा से संड़क मार्ग से भी जुड़ा था। ... और फिर पटना शोरा और अफीम के उत्पादन-केंद्र और व्यावसायिक गतिविधियों के केंद्र के तौर पर उभरकर सामने आया।... और हां पटना का बाजार केवल अफीम, शोरे और सिल्क के लिए ही मशहूर नही था, दुसरी जरुरी चीजों के लिए भी यह खरीद-बिक्री के केंद्र के रुप में उभरकर सामने आया था। यह दौर ऐसा था जब आर्मेनियाई व्यापारियों के साथ-साथ डच, पुर्तगाली, अग्रेंज, फ्रेंच व्यापारी पटना के कारोबारी कोने में शोरा, अफीम, सिल्क के लिए एक दूसरे के कंधे से कंधा टकरा रहे थे, जब तक कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले प्लासी और फिर बक्सर के युद्ध के बाद अपनी एकछत्र सत्ता नहीं स्थापित कर ली।

किताब में दिलचस्प जानकारियां है और रोचक प्रसंग हैं। यात्रा के कष्ट, कारोबारी अनिश्चितता और अनदेखी दुनिया का आकर्षण है। कई ऐसे मौकों का भी जिक्र है जबकि वैश्विक राजनीति का असर पटना के कारोबारी कोने पर दिखा , जैसे कि तुर्की के बादशाह के अनुरोध पर मुगल सत्ता ने यूरोपीय कंपनियों के पटना के बाजार से शोरा खरीदने पर पाबंदी लगा दी। और किस प्रकार से यूरोपीय देशों के आपस में बनते-बिगड़ते रिश्तों ने पटना के बाजार पर भी अपना असर दिखाया। किताब पटना की बसावट और बुनावट के बारे में भी बहुत कुछ कहती है। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पटना से सटे इलाकों का जिक्र करते हुए निकोलस डी ग्राफ ने लिखा है कि पटना शहर घने जंगलों से घिरा है, जिसमें राइनोसेरॉस(गैंडें) और दूसरे भारी-भरकम जंगली जानवर पाए जाते हैं।

यह भी कम दिलचस्प नही कि पटना के सूबेदार के बुलावे पर पुर्तगाली फादर परेरा जब पटना पहुंचे और नवाब मुकर्रब खान  से उनकी मुलाकात हुई तो उन्हें पता चला कि नवाब कैथोलिक थे। दरअसल मुकर्रब खान को जब खंभात का गवर्नर बनाया गया तो उसी दरम्यान 1610 ई में फादर पीमेंटा ने ज्यां टुटेफॉइस के नाम के साथ उसे बैप्टाइज किया था । हालांकि दस सालों बाद वो ईसाई तौर-तरीकों से दूर था। सार्वजनिक रुप से वो खुद को मुस्लिम बताता था जबकि निजी तौर पर खुद को ईसाई बताता था।

किताब में समरु का भी जिक्र है... वाल्टर रिनहार्ड सोम्बर उर्फ समरु... स्विस मूल का जर्मन। कलकत्ता में फोर्ट ऑफ विलियम में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के समय हुई ब्लैकहॉल की घटना से तो हम परिचित है, लेकिन पटना के इस ब्लैकहॉल से कम ही लोग परिचित होगें। मीर कासिम और अंग्रेजों के बीच जंग छिड़ गयी थी। मीर कासिम आगे-आगे और अंग्रेज दस्ता पीछे-पीछे। जब अंग्रेज दस्ता पटना के लिए लिए आगे बठा तो मीर कासिम ने समरु को बंदी बनाए गए कंपनी के अंग्रेज अधिकारियों और कर्मचारियों को मौत के घाट उतारने का आदेश दिया। किताब में तीन समकालीन फ्रांसिसीयों की इस संबंध में लिखे का उल्लेख है- जेंटिल, रेने मेडेक और काउंट ऑफ मोडावे। इनमें से ही एक जेंटिल का लिखा विवरण, जो इसी किताब से लिया गया है -

...उसी समय समरु आया। कुछ दूरी से नवाब को सलाम करने के बाद हमलोगों से थोड़ी दूरी पर वो बैठ गया। कासिम अली ने उसे करीब आने को कहा। उसके बैठते ही नवाब ने मुझे जाने को कहा... जैसे ही मैं नवाब के खेमे से निकला , समरु उठा उसने नवाब को सलाम किया और अंगर्जों के कत्लेआम की तैयारी के लिए चला गया।। एक फ्रांसिसी चैट्य्यू ने समरु के आदेश को मानने से इंकार कर दिया... फिर समरु खुद नवाब के आदेश पर अमल करने के लिए निकल गया।... खुले में खाना खा रहे अंग्रेजों पर उसने गोली चलानी शुरु कर दी... पैंतालीस अधिकारी और कर्मचारी इस दुखद घटना में मारे गए। ... - जेंटिल, फ्रांसिसी चश्मदीद

सबसे दाएं-  पटना में मृत अंग्रेजों की याद में स्तंभ, कलाकार- सीताराम (कंपनी कलम)
समरु

किताब को पढ़ते समय मेरी नजर सिंघिया पर जाते ही बरबस अटक गयी। नानीघर रोसड़ा की ओर जब भी जाना होता , सिंघिया से गुजरकर ही जाना होता। सिंघिया तक बस पहुंचती तो दिल को ठंडक मिलती कि चलो बस अब मिनटों की ही बात है। आगे गंडक नदी ... और फिर कुछ मिनटों में रोसड़ा। सन 1731 में डूप्ले जब चंद्रनगर में फ्रेंच कंपनी का डायरेक्टर बनकर आया तो फ्रांसिसी कारोबार को विस्तार देने में जुट गया। सन 1733 ई में उसने पटना में फैक्ट्री लगाने का फैसला किया और फिर ग्रोइस्ले को पटना स्टेशन की कमान सौंपी। दरअसल डूप्ले का मकसद पटना से अच्छी किस्म का शोरा कम कीमत पर खरीदना और फ्रांसिसी सामग्रियों की पटना में बिक्री का था। पटना बंगाल और दिल्ली के साथ भूटान, तिब्बत जैसे दूर-दराज के इलाकों के लिए भी व्यापारिक केंद्र था। बिहार में फ्रांसिसी कारोबार की और ज्यादा पैठ के लिए शोरा खरीदने के लिहाज से ग्रोइस्ले ने छपरा और सिंघिया में फ्रांसिसी लॉज शुरु करने की सिफारिश की। हालांकि ये सिंघिया मेरे नानीघर के करीब वाला सिंघिया ही है या नही है, यह अब भी मेरे लिए रहस्य ही है।

अनिरुद्ध रे की इस किताब को पढ़ने का एक फायदा यह हुआ कि बिहार में अपना समय बिताने वाले और यात्रा करने वाले यूरोपीय लोगों की लिखी किताब की एक लंबी सूची अपने हाथ लग गयी । गाहे-बेगाहे इंटरनेट पर इन किताबों को तलाशता रहता हूं।

भविष्य, वर्तमान, अतीत समरेखीय क्रमिक बिंदु होते हैं। अतीत का निरपेक्ष पाठक स्वाभाविक रुप से ज्योतिषी बन जाता है। आखिर भविष्य के भवन की बुनियाद अतीत पर ही तो खड़ी होती है। ऐसे में इतिहास का अध्ययन न केवल दिलचस्प होता है, बल्कि बेहद जरुरी भी।

खैर अब इस किताब के पीछे का किस्सा । हुआ यूं कि 1998 में दरभंगा में कामेश्वर सिंह स्मृति व्याख्यान देने के लिए डॉ अनिरुद्ध रे को बुलाया गया। रे साहब ने अठाहरवीं सदी में बिहार में आए फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के अनुभवों और विचारों पर अपना भाषण `थ्री यूरोपियंस इन लेट मेडाइवल बिहार` दिया। ऐसे में जबकि बिहार के इतिहास पर काम करने वाले इतिहासकारों ने फ्रेच श्रोतों पर खासा ध्यान नहीं दिया है , कल्याणी फाउंडेशन ने रे साहब को फ्रेंच और दूसरे अन्य युरोपीय श्रोतों के जरिए बिहार के इतिहास पर काम करने का जिम्मा सौंपा।... और उसकी ही परिणति है - `ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ बिहार – यूरोपियन डिस्कोर्सेस`।